Friday, August 31, 2007

पहचान खोते शहर

पिछले दिनों गोवा में था। दो साल में दूसरी बार, लेकिन इस बार जाकर झटका लगा। कोंकण के इस सुदूर समुद्री किनारे से ज्व ख़बरें दिल्ली पहुंच रही थीं वे सही थीं। बाजार की आंच अब वहां भी पहुंचने लगी थीं। अब वहां भी स्थानीय वास्तुशिल्प पर महानगरीय कायाकल्प का जादू छा रहा था। बड़े-बड़े शॉपिंग सेंटर, मॉल और आसमान में सीना ताने मल्टीप्लेक्स। पणजी में दो ही मशहूर रेस्त्रा हैं। शेरे पंजाब और दिल्ली दरबार। नाम भी गोवा से जुड़ा नहीं। कुछ यहां की खास के मेरे आग्रह पर बैरा झेंप जाता है। मेनू कार्ड पर प्रॉन से आगे कुछ नहीं। दाल मखनी, शाही पनीर, राजमा चावल या कढ़ी ही खानी हो तो काहे का गोवा और काहे की दिल्ली। बड़ी मुश्किल से एक पुरानी बस्ती के भीतर धंसे एक ढाबे में नारियल के झोल में पकी हुई समुद्री किंगफिश खाने को मिली तो लगा कि बहुराष्ट्रीय ढाबों की विशाल श्रृंखलाओं के आगे हमारी लाजवाब पाक कलाएं कैसे धराशायी हो रही है।

समुद्र के किनारे नारियल के झूमते पेड़ों का संगीत मिट रहा है। होटल और रिसॉर्ट बनाने के लिए एक बड़े हिस्से को उजाड़ दिया गया है। कंडोलिम जैसे बेइंतहा खूबसूरत समुद्री किनारे के कच्चेपन का आकर्षण खोता जा रहा है। अब समुद्र से बातें करने के लिए उसके किनारे पैदल चलकर जाने की जरूरत नहीं है। होटल की खिड़कियों से ही इसका आनंद लिया जा सकता है, लेकिन कमरे में समुद्र की लहरें पैरों के नीचे की रेत को बहाकर ले जाने का रोमांच कहां पैदा करती हैं। अब तो ऐसा लगता है कि दिल्ली और गोवा में धीरे-धीरे बस समुद्र, लाल किला या इंडिया गेटे के होने और न होने का अंतर रह जाएगा।

भूमंडलीकरण के दौर में बाजार सबसे बड़ा देवता है और उसकी महिमा पर सवाल खड़े करने वाले अराजक। इस नई भक्ति का विस्तार शहरों की पहचान को मटियामेट कर रहा है। हर जगह उसी तरह के मॉल, खाद्य श्रृंखलाएं और उसी हिसाब से बदलता परिवेश। गोवा ही क्यों दिल्ली से चार कदम के फासले पर जयपुर ही पहले वाला जयपुर कहां रहा। इस नए जयपुर में गुलाबी शहर की खोज करनी पड़ती है। जयपुर के लोग अब यह नहीं कहते कि जल महल, नाहरगढ़ का किला, आमेर पैलेस या केसरगढ़ का किला देखा या नहीं। अब कहते हैं कि गौरव टावर, सिटी पल्स या गणपति प्लाजा जरूर देखिए। अद्भुत है। अब उन्हें कौन कहे कि जो जयपुर हमारी कल्पनाओं में बसा है उसमें इन कंक्रीट और कोलतार के सघन जंगलों का उग आना एक सदमा है।

हरिद्वार, शिमला, देहरादून और नैनीताल जैसी पहाड़ी बस्तियां भी अब कितनी पहाड़ी रहीं। कोच्ची, पांडिचेरी, कोवलम इडुक्की, त्रिचूर और पालघाट में भी अब बदलाव की यह बयार बह रही है। इस बयार में वैश्विक सेठों के नए-नए उपनिवेश बन रहे हैं। यह नया चलन हर दस्तूर को मुनाफे की नजर से देखता है। सभ्यता को भी, संस्कृति को भी, भाषा को भी, संस्कारों को भी और सरोकारों को भी। इस आंधी में उन बस्तियों की जीवंतता गुम हो रही है जो कल तक मध्यवर्ग को भी अपनी तरफ खींचते थे। थोड़ी-बहुत जो कशिश बची हुई है वो भी जल्दी ही अतीत हो जाएगी। धीरे-धीरे वे लोग भी हाशिए पर चले जाएंगे जिनकी पीढ़ियों ने अवचेतन में ही सह-अस्तित्व की व्यावहारिक व्याख्याएं दीं। ठीक वैसे ही जैसे कोलियों को मुंबई अब एक पराया शहर लगता है।

सवाल है कि हम अपने आसपास की दुनिया को विकास की कैसी कूंची से रंगना चाहते हैं। क्या उनकी मौलिक खूबसूरती से छेड़छाड़ किए बगैर वाकई उनकी तस्वीर नहीं बदली जा सकती? या फिर एक खास तबके के लोग इस समूची जिंदादिली को अपने नफे के हिसाब से ढालने के लिए एक विकास का एक तिलिस्म बुन रहे हैं। जरा कोई बताए कि न्यूयार्क, शंघाई, शिकागो और टोकियो में आज क्या फर्क है सिवाए नाम और दूरी के। तरक्की फ्रांस ने भी कम नहीं की है लेकिन पेरिस को आप शिकागो नहीं कह सकते। उस शहर के कुछ ठेठ देशज संस्कार हैं। वेनिस में अभी भी वैसे ही नावें चलती हैं। पर्यटकों के लिए स्वर्ग है वेनिस लेकिन सुविधाओं के लिहाज से नहीं अपनी चुंबकीय खासियतों की वजह से। ऐसी ही आंधी हंगरी में भी चल रही है लेकिन बुडापेस्ट को लॉज एंजेलिस या वाशिंगटन बना देने का सपना वहां नहीं दिखाया जाता।

हमारे यहां अगर आज सैकड़ों किलोमीटर का फासला तय करके भी अब सिर्फ पता बदलता है एहसास नहीं तो गलती कहां है। बार-बार क्यों बताया जाता है कि मुंबई को शंघाई बनाया जा रहा है और दिल्ली को सिंगापुर। दिल्ली दिल्ली और मुंबई मुंबई बनकर क्यों नहीं रह सकती। हमारी वो कौन सी ग्रंथियां हैं जो हमें हमारी जड़ों से उखाड़कर अपनी ही ज़मीन पर परदेसी बन जाने की उत्तेजना पैदा करती है। एक सांध्य दैनिक में छपी ख़बर पर नज़र जाती है चांदनी चौक के जिस फुटपाथी चाट वाले के हुनर जमाना दीवाना था उसने आत्महत्या कर ली। एक अदालती आदेश के बाद वह फुटपाथ से सड़क पर आ गया था।

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