Sunday, August 19, 2007

“पिपरमेंटी कमिटमेंट” का मतलब?

(15 जुलाई, रविवार को प्रकाशित सुधीश पचौरी के आलेख पर असहमति पत्र)

क्या आप हिंदी के विकास में गिरिजा व्यास, नारायण कुमार, प्रेमचंद शर्मा, जनार्दन द्विवेदी, देवेंद्र द्विवेदी, सत्यव्रत चतुर्वेदी या अनिल शर्मा जोशी के योगदान को जानते हैं? नहीं जानते तो जान लीजिए, ये राष्ट्रभाषा के विकास के नए योद्धा हैं। यही वजह रही होगी कि आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन में पहले सत्र की अध्यक्षता कराने के लिए गिरिजा व्यास और दूसरे सत्र की अध्यक्षता कराने के लिए नारायण कुमार से बड़ा कोई विद्वान नहीं मिला। ऐसे तमाम विद्वानों ने इस सम्मेलन में शिरकत किया। हिंदी के कई दिग्गजों को इसपर कई तरीके से ऐतराज था इसलिए उन्होंने न्यूयॉर्क न जाने का फैसला किया। सबने अपनी-अपनी वजह भी बताई, लेकिन समालोचक सुधीश पचौरी के मुताबिक ऐसे लोगों ने न्यूयॉर्क न जाकर और इसकी वजह को सार्वजनिक करके अपना बेड़ा गर्क कर लिया है। यहां तक भी ठीक था लेकिन यह कहने के लिए उन्होंने जो भूमिका तैयार की वह विचलित करने वाली है। उन्होंने लिखा है कि “बुढ़ापे का प्यार और बुढ़ापे की क्रांतिकारिता बड़ा दर्दीला दुर्गत कराने वाला आइटम बन जाती है। …सीनियर सिटिजनों की दुनिया दर्दीली ही होती है। ...हम कहते हैं कि क्रांतिकारिता तो पार्किन्सनिया छाप होती है। हाथ-पैर कांपते रहते हैं गर्दन में विचार फंसे रह जाते हैं मगर कमिटमेंट नामक पिपरमिंटी गोली आदमी को लाल भभूका बनाए रखती है। बच्चे हंसने लगते हैं।” सुधीश जी आपको नहीं लगता कि आपकी इस पोस्टमॉर्डन थ्योरी ने आधी दुनिया के राजनैतिक और सामाजिक विकास को पूरी तरह से खारिज कर दिया है? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह थ्योरी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रतिरोध के बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकार और लेखकीय जवाबदेहियों की कुर्बानी की मांग करती है? लेकिन पहले साहित्य की बात। आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन में जो लोग नहीं गए और जिन्होंने प्रतिरोध भी दर्ज कराया उनमें से कई ऐसे हैं जिन्हें काटकर मौजूदा हिंदी का पूरा चेहरा ही नहीं बनता। इनमें ज्यादातर सीनियर सिटिजन ही हैं। नामवर सिंह, राजेंद्र यादव, महाश्वेता देवी, अशोक वाजपेयी, कुंवरपाल सिंह, केदारनाथ सिंह, पंकज बिष्ट, मंगलेश डबराल...। लेकिन आपके मुताबिक इन लोगों को “कोई आज पूछ नहीं रहा है।” इन्होंने यह बताकर “अपना बुढ़ापा खराब कर लिया है” कि उनका ऐतराज किन बिंदुओं पर है। ऐसे तमाम लोग “कमिटमेंटी पिपरमेंटी” साहित्यकार है और जो लोग तिकड़म भिड़ाकर न्यूयॉर्क घूम आए वे हिंदी के कोलंबस जो इस भाषा के नए द्वीपों की तलाश की चिंता में घुले जा रहे हैं। प्रतिबद्धता का इससे भौंडा मजाक नहीं उड़ाया जा सकता। कम से कम सुधीश पचौरी में तो इस गुस्ताखी की नैतिकता भी नहीं है। मुझे नहीं मालूम हिंदी को उन्होंने याद रखने लायक ऐसा क्या दे दिया है जिसके आगे उन्हें राजेंद्र यादव, नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, केदारनाथ सिंह और महाश्वेता देवी की साठोत्तरी उम्र की सोच और सृजन दोनों के लिहाज से पिपरमेंटी मान लिया है। आज महाश्वेता, राजेंद्र, नामवर या पंकज जैसे “क्रांतिकारी हवाबाज” अपनी तमाम जवानी के बावजूद कम से कम सुधीश पचौरी से ज्यादा प्रासंगिक और ज़रूरी हैं। आप सम्मेलन ही करते रह गए और कैंब्रिज में हो रही हिंदी की पढ़ाई भी बंद हो गई। रही बात कमिटमेंट की तो यहां सुधीश जी वाकई अपनी जगह ठीक हैं। “इस परम पोस्टमॉर्डन जमाने” में वाकई कमिटमेंट जैसा कोई शब्द एक्जिस्ट नहीं करता। अमेरिका से बड़ा इसका उदाहरण क्या होगा जहां से आप पोस्टमॉर्डनिज्म उधार लेकर हिंदुस्तान आए हैं। इस सिद्धांत में शांति एक आडंबर है और युद्ध एक अनिवार्य उत्तेजना। इसीलिए इराक, अफगानिस्तान, फिलिस्तीन और वियतनाम जैसे नाम एक परिघटना बन जाते हैं। यही वजह है कि जब आपने कहा कि कमिटमेंट पिपरमेंट का हवाई असर होता है तो अटपटा नहीं लगा। जब आपने आत्ममुग्ध भाव से खुद ही घोषणा कर दी है कि आप पोस्टमॉर्डनिस्ट लेखक हैं तो क्या कहें। इसे विडंबना कहें या इस देश की महानता कि जहां अभी ठीक से मॉडर्निज्म भी नहीं आया वहां एक लेखक पोस्टमॉर्डनिज्म के नाम पर खुद को धड़ल्ले से बेच लेता है। जिस देश में सैकड़ों किसान हर साल भूख से दम तोड़ देते हों, आधा देश मजहब के नाम पर भय के साये में जीता हो, औद्योगिक विकास के नाम पर किसानों-मजदूरों को उजाड़ा जा रहा हो और जहां रोज नाबालिग बच्चियों के साथ बलात्कारकी खबरें आती हों उस देश में पोस्टमॉडर्निज्म की सार्थकता आप ही सिद्ध कर सकते हैं। नॉम चॉम्स्की बहुत पहले कह चुके हैं कि “पोस्टमॉडर्निज्म एक घोटाला है जिसका पूरा तानाबाना कुछ बुद्धिजीवियों ने अपने आपको बेरोजगार होने से बचाए रखने के लिए रचा है।” किसानों, मजदूरों, महिलाओं, सांप्रदायिकता और आर्थिक-सामाजिक विद्रुपताओं को साहित्य की मुख्य धारा में शामिल करने वाले लोग आज पिपरमेंटी हैं जिनपर “आज के बच्चे भी हंसते हैं।” पचौरी जी जैसे लोगों का तो पेट फूल जाता होगा। सुधीश पचौरी जी की मानें तो सत्तर-अस्सी की उम्र नए बोझ उठाने की नहीं खाट पर आराम करने की होती है। तब तो नेल्सन मंडेला, हो-ची-मिन्ह, माओ-त्से-तुंग से लेकर यासिर अराफात और फिदेल कास्त्रो तक ने सत्तर पार की उम्र में जो किया वह “पार्किन्सनिया छाप क्रांतिकारिता” थी। पचौरी जी पोस्टमॉडर्निज्म के जोश में भूल रहे हैं कि गांधी ने अठत्तर की उम्र में इस देश को आजादी दिलाई थी। अराफात की कांपती हुई हड्डियां भी कम से कम फिलीस्तीन को जोड़े हुए थीं, इक्यासी के कास्त्रो बिस्तर पर पड़े हुए भी अमेरिकी अधिनायकवाद के खिलाफ सबसे मुखर आवाज हैं और मंडेला ने जब सत्ताइस साल की जेल काटकर रंगभेद की नीति पर निर्णायक चोट की तो वे सत्तर के होने वाले थे। पचौरी जी यह सब बुढ़ापे की “क्रांतिकारी हवाबाजी” नहीं थी। सत्तर पार के लोग इतिहास की धारा बदल सकते हैं और साहित्य में उनकी उम्र अवरोधक बन जाती है यह बात कुछ हजम नहीं होती। टॉल्सटॉय ने वार एंड पीस कितनी उम्र में लिखी थी? वक्त की धाराएं अनर्गल, अराजक और दंभी बौद्धिक प्रलाप से नहीं एक ठोस चिंतन से तय होती हैं। साहित्य में भी यह बात उतनी ही खरी है वर्ना आज विश्व हिंदी सम्मेलन को अपने कमिटमेंट के सामने ठेंगे पर रखने वाले लेखक हाशिए पर होते और कमिटमेंट का मजाक उड़ाने वाले पोस्टमॉर्डन लेखकों को हिंदी का पाठक सिर-माथे पर बैठा लेता। प्रसंगवश यहां यह बताना भी गैरवाजिब नहीं होगा कि विदेश मंत्रालय के प्रतापी हिंदी उद्धारकों ने विश्व हिंदी सम्मेलन के आमंत्रितों की जो सूची बनाई थी उसमें राजेंद्र माथुर और कमलेश्वर का नाम भी दर्ज था। यह तो उन्हें उनके घरों पर फोन करने के बाद पता चला कि राजेंद्र माथुर डेढ़ दशक पहले गुजर गए और कमलेश्वर को दिवंगत हुए भी अरसा हुआ। पचौरी जी को भी ऐसे ही किसी गंगू, मंगू या पंगू ने आमंत्रित किया होगा। आप इसपर सवाल उठाने का साहस कभी नहीं जुटा पाएंगे कि ऐसी भयंकर गलती आयोजन समिति में पांच दर्जन प्रकांड विद्वानों के रहते कैसे हो गई। इसके बावजूद आप अमेरिका जाते हैं तो जाएं। यह तो मानने की बात है। आप चाहें तो इसे आमंत्रण मानें और चाहें तो अपमान।

No comments: