Monday, September 29, 2008

उन्हें माफ करना मुश्ताक

नवीन कुमार
आज कई महीने बाद मुश्ताक का फोन आया है। उसका पहला वाक्य था, क्या मैं आतंकवादी लगता हूं। उसका लहजा इतना तल्ख है कि मैं सहम जाता हूं। मेरी जुबान जम जाती है। वह बिना मेरे बोलने का इंतजार किए कहता चला जाता है। ...तुमलोग हमें खत्म क्यों नहीं कर देते। यह लड़ाई किसके खिलाफ है। कुछ लोगों के खिलाफ या फिर पूरी एक कौम के खिलाफ।... वह रोने लगता है। मुश्ताक रो रहा है। भरोसा नहीं होता। उसे मैं पिछले 18 साल से जानता हूं। तब से जब हम पांचवीं में थे। उसके बारे में मशहूर था कि वो अब्बू के मरने पर भी नहीं रो सकता। वह मुश्ताक रो रहा है।

दो दिन पहले ही दिल्ली के बटला हाउस इलाके में मुठभेड़ हुई है। यह ख़बर देखते ही देखते राजधानी के हर गली-कूचे-चौराहे पर पसर गई है। मुश्ताक सॉफ्टवेयर इंजीनियर है। वह नोएडा में एक मल्टीनेशनल कंपनी के दफ्तर में काम करता है। है नहीं था। आज उसे दफ्तर में घुसते हुए रोक दिया गया। मैनेजमेंट ने उसे कुछ दिनों तक न आने को कहा है। यह कुछ दिन कितना लंबा होगा उसे नहीं मालूम। उसके दफ्तरी दोस्तों में से ज्यादातर ने उससे किनारा कर लिया है। मुश्ताक हिचकी ले रहा है। मैं सन्न हूं।

मुश्ताक पटना वापस लौट रहा है। मैं स्टेशन पर उससे मिलने आया हूं। वह बुरी तरह से बिखरा हुआ है। टूटा हुआ। वह मेरी नजरों में भरोसे की थाह लेना चाह रहा है। पूछता है यह मुल्क हमारा होकर भी हमारा क्यों नहीं लगता। मैं उसे रुकने को नहीं कह पाता। वह खुद ही कहता चला जाता है। रुक कर क्या होगा। तुम्हें सोच भी नहीं सकते हमपर क्या बीत रही है। अंदाजा भी नहीं हो सकता तुम्हारे नाम की वजह से दफ्तर के दरवाजे पर रोक दिए जाने की टीस। कलेजा फट जाता है।

मुश्ताक सवाल नहीं कर रहा है। हथौड़े मार रहा है। हमारी लोकतांत्रिक चेतना पर। सामाजिक सरोकारों पर। कोई नहीं पूछता कि अगर पुलिस को पता था कि आतंकवादी एक खास मकान के खास फ्लैट में छिपे बैठे हैं उन्हें जिंदा पकड़ने की कोशिश क्यों नहीं हुई। उनके खिलाफ सबूत क्या हैं। आतंकवाद के नाम पर वो किसी को भी उठा सकते हैं। किसी को भी मार सकते हैं। कहा जा रहा है वो अपना पाप छिपाए रखने के लिए ऊंची तालीम ले रहे हैं। एक पुलिसवाला पूरी बेशर्मी से कहता है सैफ दिखने में बहुत स्मार्ट है, उसकी कई महिला मित्र हैं। जैसे यह कोई बहुत बड़ा अपराध हो।

जैसे भरोसे की मीनारें ध्वस्त होती जा रही हैं। बटला हाउस की मुठभेड़ सिर्फ एक घटना नहीं है। कानून और मान्यताओं के बीच फैला एक ऐसा रेगिस्तान है जिसपर अविश्वास की नागफनी का एक भयावह जंगल उग रहा है। ट्रेन खुलने वाली है। मुश्ताक अपने पर्स से निकालकर मेरा विजिटिंग कार्ट फाड़ रहा है। कहता है, क्या पता किसी एनकाउंटर में कब मार दिया जाऊं और वो तुम्हें भी कठघरे में खड़ा कर दें। वह कसकर मेरा हाथ पकड़ लेता है। लगता है उसकी आत्मीयता की तपिश मुझे पिघला देगी। ट्रेन सरकने लगती है। दरकती जा रही है विश्वास की दीवार।
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28 सितंबर 2008
मैं नवीन कुमार का लेख पढ़कर रोया, केवल मुश्ताक पर नहीं वरन् मेरे अपने मुल्क की हालत पर। क्या यह वही भारत है जिसकी खातिर शहीद भगत सिंह फांसी के तख्ते पर झूल गये थे? तुम्हीं बताओ मुश्ताक, अगर उनका सपना ऐसे भारत का नहीं था तो वैसा भारत बनाने की लड़ाई कौन लड़ेगा? क्या इस लड़ाई में तुम शामिल नहीं होगे? यह मुल्क उतना ही तुम्हारा है जितना मेरा – दरअसल, तुम्हारा ज्यादा चूंकि मैं तो जिंदगी के आखिरी पड़ाव (उम्र 68 साल) में हूँ। तुमने तो अभी इस मुल्क में लंबा जीना है। लौट आओ वापस पटना से – भारत को एक बार फिर शहीद भगत सिंह के सपनों वाला और हम सबका खूबसूरत मुल्क बनाने की जंग लड़ने के लिए लौट आओ। तुम्हारे बिना यह लड़ाई अधूरी रहेगी, जीती भी नहीं जा सकेगी। आज है भी 28 सितंबर - उनका जन्म दिवस। हमें आज ही अपने पुराने संकल्प को ताजा करना है – तुमको भी।
- डॉ. अनिल सद्गोपाल
भोपाल

Wednesday, June 18, 2008

लंदन का मोह

पिछले दिनों लंदन के ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन (बीबीसी) मुख्यालय के सामने दक्षिण एशियाई भाषाओं के पत्रकारों ने उन्हें लंदन से हटाए जाने के विरोध में प्रदर्शन किया। बीबीसी प्रबंधन ने फैसला किया है कि दक्षिण भाषाई सेवाओं का संचालन पूरी तरह से उन्हीं देशों से किया जाए जहां वो बोली जाती हैं। इसी के तहत लंदन से पत्रकारों को वापस भेजा जा रहा है। इसमें बीबीसी हिंदी,बांग्ला और तमिल सर्विस के पत्रकार भी शामिल हैं। इसके एवज में एक मोटी रकम पत्रकारों को दी जा रही है। इसके बावजूद पत्रकार बीबीसी के फैसले का विरोध कर रहे हैं।

अब जरा पत्रकारों की दलील सुनिए। उनका कहना है कि “यह एक बीमार सोच और खतरनाक प्रयोग है जो बीबीसी की संपादकीय अखंडता, वस्तुनिष्ठता और स्वायत्तता को नष्ट कर देगा।” एक पत्रकार ने यहां तक कहा कि “बीबीसी का भाषाई विकेंद्रीकरण बुरी तरह से उन देशों के राजनैतिक और व्यावसायिक हितों से प्रभावित होगा।” सुनने में भी अजीब लगती हैं ये दलीलें। दुनियाभर के पत्रकारिता संस्थानों में पढ़ाया जाता रहा है कि रिपोर्टिंग छोर से प्रकाशन या प्रसारण केंद्र की दूरी जितनी कम होगी सूचनाओं का प्रवाह उतना तेज, तथ्यपरक और सटीक होगा। हिंदुस्तान में इस सिद्धांत का व्यावहारिक विस्तार हम देख रहे हैं। मुजफ्फरपुर और गया जैसे शहरों से अखबारों के संस्करण निकल रहे हैं। छोटे-छोटे शहरों के अपने खबरिया चैनल खुल रहे हैं।

ऐसे में बीबीसी के पत्रकारों की ये दलीलें बड़ी बचकानी लगती हैं कि अगर बीबीसी की हिंदी सेवा का नियंत्रण दिल्ली और बांग्ला सेवा का कोलकाता या ढाका से होने लगेगा तो उसकी साख खतरे में पड़ जाएगी। यह किसी की भी समझ से बाहर है कि बयाना की खबर को लंदन में बैठकर बेहतर तरीके से रिपोर्ट किया जा सकता है बजाए दिल्ली के। यह पत्रकारों के लंदन या पौंड मोह के अलावा और कुछ नहीं हो सकता लेकिन इसे स्वीकार करने की बजाए पत्रकारिता की वस्तुनिष्ठता का ढोल पीटा जा रहा है।

शायद आप इस ख़बर पर अफसोस करें लेकिन वस्तुनिष्ठता और तटस्थता के आग्रही बीबीसी हिंदी सेवा के पत्रकारों ने लंदन में बाजार और राजनैतिक दबावों से मुक्त होने के बावजूद नेपाल में राजशाही के औपचारिक अंत की ऐतिहासिक ख़बर को उस दिन ब्रॉडकास्ट करना जरूरी नहीं समझा था। जबकि बाजार के तमाम दबावों को झेलते हुए लगभग सभी हिंदी चैनलों और अखबारों ने इसपर विशेष आयोजन किया था। राजनैतिक तटस्थता का दंभ भरने वाले इसी बीबीसी के एक संपादक ने गुजरात में नरेंद्र मोदी की जीत पर उनकी शान में कसीदे पढ़ते हुए अपनी वेबसाइट में लिखा था कि पिछले पांच साल में गुजरात में एक भी सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ। यहां यह बताना जरूरी है कि इस तथ्य के उल्लेख के लिए जिन शब्दों का इस्तेमाल उस लेख में किया गया था वो उसी दिन जारी हुए लालकृष्ण आडवाणी की प्रेस विज्ञप्ति की हू-ब-हू नकल थे। हकीकत में पिछले ही साल वडोदरा में एक दरगाह पर बुलडोजर चलवाने की वजह से बड़ा सांप्रदायिक दंगा हुआ था और इन्हीं नरेंद्र मोदी को स्थिति पर काबू बाने के लिए सेना बुलानी पड़ी थी। विश्व हिंदू परिषद के एक नेता की गाड़ी में बच्चों को जिंदा जला दिया गया था। यह तो हालत है बीबीसी की संपादकीय वस्तुनिष्ठता की। सटीकता का उदाहरण ये है कि महीनों तो उनकी वेबसाइट पर शिवशंकर मेनन विदेश मंत्री बने रहते हैं और इलाहबाद हाईकोर्ट उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट। ऐसे में आप बीबीसी की रिपोर्टिंग के स्तर का अंदाजा लगा सकते हैं।

सच तो यह है कि बीबीबीसी कभी भी लकीर खींचने वाला संस्थान नहीं रहा। फिलिस्तीन से लेकर, 84 के दंगे, गुजरात, नंदीग्राम और महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों पर हमले तक वो अपनी तटस्थता का रोना रोता रहा है। ऐसी स्थिति बड़ी खतरनाक होती है। जनता की जुबान बनने के अपने जोखिम होते हैं। हर अखबार, हर चैनल इसी घोषणा के साथ शुरु होता है और अंत तक कम से कम दावा करता रहता है। बीबीसी तो इसका दावा भी नहीं कर सकता क्योंकि विरोध के नैतिक साहस को वो पक्षपात कहता है। बीबीसी का कोई भी पत्रकार यह नहीं कह सकता कि उसने सरकार के आंकड़ों या तथ्यों को अपने भरोसे झूठ साबित किया हो। इसके लिए उसे सरकार के विरोधियों की जुबान में बात डालनी पड़ती है। अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि भारत में ऐसी पत्रकारिता का कोई भविष्य नहीं है।

इसलिए जब बीबीसी के पत्रकार लंदन में बैठकर कहते हैं कि दिल्ली पहुंचकर उनकी कलम देशी राजनैतिक और व्यावसायिक हितों की मार से कुंद हो जाएगी तो हंसी आती है। दुनिया का हर पत्रकार स्थितियों और घटनाओं को उसके सबसे ज्यादा करीब जाकर रिपोर्ट करना चाहता है। इसी की होड़ है। लेकिन बीबीसी के भाषाई पत्रकार एक टापू पर बैठकर हजारों मील दूर से उसे देखने की लीक से जकड़े रहना चाहते हैं। बीबीसी का जिस दौर में नाम था वह जमाना कोई और था। तब संचार माध्यमों का इस तरह से विकास नहीं हुआ था। अखबार सिर्फ राजधानियों में छपते थे। समाचार चैनल के नाम पर दूरदर्शन था और रेडियो का मतलब ऑल इंडिया रेडियो। रेडियो सेट बड़ी चीज होती थी। टीवी तो जिसके घर में हो उसे आसपास के गांव के लोग भी जानते थे। छतों पर एंटीना का मतलब रईस होना होता था। इसपर भी तस्वीर आती थी तो आवाज नहीं, आवाज साफ आती थी तो तस्वीर धुंधली। इसीलिए शाम साढ़े सात बजे चौपाल पर रेडियो की आवाज गूंजने लगती थी – ये बीबीसी लंदन है। लेकिन अब ऐसा नहीं है। देखते ही देखते चीजें बदल गई हैं। अब तो बीबीसी हिंदी सर्विस के लिए पहचान का संकट है। लोग अभी की खबर अभी चाहते हैं। वो भी अपनी तरह की जुबान में, अपनी बात कहती हुई ख़बरें। दिल को छूती हुई। एक खतरनाक किस्म की तटस्थता अब नहीं चलेगी। अब पत्रकारिता में अलग किस्म की लड़ाई है। इस लड़ाई में हिस्सेदार बनने के लिए बीबीसी को अपनी चाल भी बदलनी होगी और चलन भी। वर्ना निर्जन द्वीप पर बैठकर करदाताओं से उगाही के पैसे से एक स्वान्त:सुखाय किस्म की पत्रकारिता तो चाहे जब तक की जा सकती है। लेकिन सुनेगा कोई नहीं।