Monday, September 29, 2008

उन्हें माफ करना मुश्ताक

नवीन कुमार
आज कई महीने बाद मुश्ताक का फोन आया है। उसका पहला वाक्य था, क्या मैं आतंकवादी लगता हूं। उसका लहजा इतना तल्ख है कि मैं सहम जाता हूं। मेरी जुबान जम जाती है। वह बिना मेरे बोलने का इंतजार किए कहता चला जाता है। ...तुमलोग हमें खत्म क्यों नहीं कर देते। यह लड़ाई किसके खिलाफ है। कुछ लोगों के खिलाफ या फिर पूरी एक कौम के खिलाफ।... वह रोने लगता है। मुश्ताक रो रहा है। भरोसा नहीं होता। उसे मैं पिछले 18 साल से जानता हूं। तब से जब हम पांचवीं में थे। उसके बारे में मशहूर था कि वो अब्बू के मरने पर भी नहीं रो सकता। वह मुश्ताक रो रहा है।

दो दिन पहले ही दिल्ली के बटला हाउस इलाके में मुठभेड़ हुई है। यह ख़बर देखते ही देखते राजधानी के हर गली-कूचे-चौराहे पर पसर गई है। मुश्ताक सॉफ्टवेयर इंजीनियर है। वह नोएडा में एक मल्टीनेशनल कंपनी के दफ्तर में काम करता है। है नहीं था। आज उसे दफ्तर में घुसते हुए रोक दिया गया। मैनेजमेंट ने उसे कुछ दिनों तक न आने को कहा है। यह कुछ दिन कितना लंबा होगा उसे नहीं मालूम। उसके दफ्तरी दोस्तों में से ज्यादातर ने उससे किनारा कर लिया है। मुश्ताक हिचकी ले रहा है। मैं सन्न हूं।

मुश्ताक पटना वापस लौट रहा है। मैं स्टेशन पर उससे मिलने आया हूं। वह बुरी तरह से बिखरा हुआ है। टूटा हुआ। वह मेरी नजरों में भरोसे की थाह लेना चाह रहा है। पूछता है यह मुल्क हमारा होकर भी हमारा क्यों नहीं लगता। मैं उसे रुकने को नहीं कह पाता। वह खुद ही कहता चला जाता है। रुक कर क्या होगा। तुम्हें सोच भी नहीं सकते हमपर क्या बीत रही है। अंदाजा भी नहीं हो सकता तुम्हारे नाम की वजह से दफ्तर के दरवाजे पर रोक दिए जाने की टीस। कलेजा फट जाता है।

मुश्ताक सवाल नहीं कर रहा है। हथौड़े मार रहा है। हमारी लोकतांत्रिक चेतना पर। सामाजिक सरोकारों पर। कोई नहीं पूछता कि अगर पुलिस को पता था कि आतंकवादी एक खास मकान के खास फ्लैट में छिपे बैठे हैं उन्हें जिंदा पकड़ने की कोशिश क्यों नहीं हुई। उनके खिलाफ सबूत क्या हैं। आतंकवाद के नाम पर वो किसी को भी उठा सकते हैं। किसी को भी मार सकते हैं। कहा जा रहा है वो अपना पाप छिपाए रखने के लिए ऊंची तालीम ले रहे हैं। एक पुलिसवाला पूरी बेशर्मी से कहता है सैफ दिखने में बहुत स्मार्ट है, उसकी कई महिला मित्र हैं। जैसे यह कोई बहुत बड़ा अपराध हो।

जैसे भरोसे की मीनारें ध्वस्त होती जा रही हैं। बटला हाउस की मुठभेड़ सिर्फ एक घटना नहीं है। कानून और मान्यताओं के बीच फैला एक ऐसा रेगिस्तान है जिसपर अविश्वास की नागफनी का एक भयावह जंगल उग रहा है। ट्रेन खुलने वाली है। मुश्ताक अपने पर्स से निकालकर मेरा विजिटिंग कार्ट फाड़ रहा है। कहता है, क्या पता किसी एनकाउंटर में कब मार दिया जाऊं और वो तुम्हें भी कठघरे में खड़ा कर दें। वह कसकर मेरा हाथ पकड़ लेता है। लगता है उसकी आत्मीयता की तपिश मुझे पिघला देगी। ट्रेन सरकने लगती है। दरकती जा रही है विश्वास की दीवार।
-----------------------------------------

28 सितंबर 2008
मैं नवीन कुमार का लेख पढ़कर रोया, केवल मुश्ताक पर नहीं वरन् मेरे अपने मुल्क की हालत पर। क्या यह वही भारत है जिसकी खातिर शहीद भगत सिंह फांसी के तख्ते पर झूल गये थे? तुम्हीं बताओ मुश्ताक, अगर उनका सपना ऐसे भारत का नहीं था तो वैसा भारत बनाने की लड़ाई कौन लड़ेगा? क्या इस लड़ाई में तुम शामिल नहीं होगे? यह मुल्क उतना ही तुम्हारा है जितना मेरा – दरअसल, तुम्हारा ज्यादा चूंकि मैं तो जिंदगी के आखिरी पड़ाव (उम्र 68 साल) में हूँ। तुमने तो अभी इस मुल्क में लंबा जीना है। लौट आओ वापस पटना से – भारत को एक बार फिर शहीद भगत सिंह के सपनों वाला और हम सबका खूबसूरत मुल्क बनाने की जंग लड़ने के लिए लौट आओ। तुम्हारे बिना यह लड़ाई अधूरी रहेगी, जीती भी नहीं जा सकेगी। आज है भी 28 सितंबर - उनका जन्म दिवस। हमें आज ही अपने पुराने संकल्प को ताजा करना है – तुमको भी।
- डॉ. अनिल सद्गोपाल
भोपाल

Wednesday, June 18, 2008

लंदन का मोह

पिछले दिनों लंदन के ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन (बीबीसी) मुख्यालय के सामने दक्षिण एशियाई भाषाओं के पत्रकारों ने उन्हें लंदन से हटाए जाने के विरोध में प्रदर्शन किया। बीबीसी प्रबंधन ने फैसला किया है कि दक्षिण भाषाई सेवाओं का संचालन पूरी तरह से उन्हीं देशों से किया जाए जहां वो बोली जाती हैं। इसी के तहत लंदन से पत्रकारों को वापस भेजा जा रहा है। इसमें बीबीसी हिंदी,बांग्ला और तमिल सर्विस के पत्रकार भी शामिल हैं। इसके एवज में एक मोटी रकम पत्रकारों को दी जा रही है। इसके बावजूद पत्रकार बीबीसी के फैसले का विरोध कर रहे हैं।

अब जरा पत्रकारों की दलील सुनिए। उनका कहना है कि “यह एक बीमार सोच और खतरनाक प्रयोग है जो बीबीसी की संपादकीय अखंडता, वस्तुनिष्ठता और स्वायत्तता को नष्ट कर देगा।” एक पत्रकार ने यहां तक कहा कि “बीबीसी का भाषाई विकेंद्रीकरण बुरी तरह से उन देशों के राजनैतिक और व्यावसायिक हितों से प्रभावित होगा।” सुनने में भी अजीब लगती हैं ये दलीलें। दुनियाभर के पत्रकारिता संस्थानों में पढ़ाया जाता रहा है कि रिपोर्टिंग छोर से प्रकाशन या प्रसारण केंद्र की दूरी जितनी कम होगी सूचनाओं का प्रवाह उतना तेज, तथ्यपरक और सटीक होगा। हिंदुस्तान में इस सिद्धांत का व्यावहारिक विस्तार हम देख रहे हैं। मुजफ्फरपुर और गया जैसे शहरों से अखबारों के संस्करण निकल रहे हैं। छोटे-छोटे शहरों के अपने खबरिया चैनल खुल रहे हैं।

ऐसे में बीबीसी के पत्रकारों की ये दलीलें बड़ी बचकानी लगती हैं कि अगर बीबीसी की हिंदी सेवा का नियंत्रण दिल्ली और बांग्ला सेवा का कोलकाता या ढाका से होने लगेगा तो उसकी साख खतरे में पड़ जाएगी। यह किसी की भी समझ से बाहर है कि बयाना की खबर को लंदन में बैठकर बेहतर तरीके से रिपोर्ट किया जा सकता है बजाए दिल्ली के। यह पत्रकारों के लंदन या पौंड मोह के अलावा और कुछ नहीं हो सकता लेकिन इसे स्वीकार करने की बजाए पत्रकारिता की वस्तुनिष्ठता का ढोल पीटा जा रहा है।

शायद आप इस ख़बर पर अफसोस करें लेकिन वस्तुनिष्ठता और तटस्थता के आग्रही बीबीसी हिंदी सेवा के पत्रकारों ने लंदन में बाजार और राजनैतिक दबावों से मुक्त होने के बावजूद नेपाल में राजशाही के औपचारिक अंत की ऐतिहासिक ख़बर को उस दिन ब्रॉडकास्ट करना जरूरी नहीं समझा था। जबकि बाजार के तमाम दबावों को झेलते हुए लगभग सभी हिंदी चैनलों और अखबारों ने इसपर विशेष आयोजन किया था। राजनैतिक तटस्थता का दंभ भरने वाले इसी बीबीसी के एक संपादक ने गुजरात में नरेंद्र मोदी की जीत पर उनकी शान में कसीदे पढ़ते हुए अपनी वेबसाइट में लिखा था कि पिछले पांच साल में गुजरात में एक भी सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ। यहां यह बताना जरूरी है कि इस तथ्य के उल्लेख के लिए जिन शब्दों का इस्तेमाल उस लेख में किया गया था वो उसी दिन जारी हुए लालकृष्ण आडवाणी की प्रेस विज्ञप्ति की हू-ब-हू नकल थे। हकीकत में पिछले ही साल वडोदरा में एक दरगाह पर बुलडोजर चलवाने की वजह से बड़ा सांप्रदायिक दंगा हुआ था और इन्हीं नरेंद्र मोदी को स्थिति पर काबू बाने के लिए सेना बुलानी पड़ी थी। विश्व हिंदू परिषद के एक नेता की गाड़ी में बच्चों को जिंदा जला दिया गया था। यह तो हालत है बीबीसी की संपादकीय वस्तुनिष्ठता की। सटीकता का उदाहरण ये है कि महीनों तो उनकी वेबसाइट पर शिवशंकर मेनन विदेश मंत्री बने रहते हैं और इलाहबाद हाईकोर्ट उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट। ऐसे में आप बीबीसी की रिपोर्टिंग के स्तर का अंदाजा लगा सकते हैं।

सच तो यह है कि बीबीबीसी कभी भी लकीर खींचने वाला संस्थान नहीं रहा। फिलिस्तीन से लेकर, 84 के दंगे, गुजरात, नंदीग्राम और महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों पर हमले तक वो अपनी तटस्थता का रोना रोता रहा है। ऐसी स्थिति बड़ी खतरनाक होती है। जनता की जुबान बनने के अपने जोखिम होते हैं। हर अखबार, हर चैनल इसी घोषणा के साथ शुरु होता है और अंत तक कम से कम दावा करता रहता है। बीबीसी तो इसका दावा भी नहीं कर सकता क्योंकि विरोध के नैतिक साहस को वो पक्षपात कहता है। बीबीसी का कोई भी पत्रकार यह नहीं कह सकता कि उसने सरकार के आंकड़ों या तथ्यों को अपने भरोसे झूठ साबित किया हो। इसके लिए उसे सरकार के विरोधियों की जुबान में बात डालनी पड़ती है। अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि भारत में ऐसी पत्रकारिता का कोई भविष्य नहीं है।

इसलिए जब बीबीसी के पत्रकार लंदन में बैठकर कहते हैं कि दिल्ली पहुंचकर उनकी कलम देशी राजनैतिक और व्यावसायिक हितों की मार से कुंद हो जाएगी तो हंसी आती है। दुनिया का हर पत्रकार स्थितियों और घटनाओं को उसके सबसे ज्यादा करीब जाकर रिपोर्ट करना चाहता है। इसी की होड़ है। लेकिन बीबीसी के भाषाई पत्रकार एक टापू पर बैठकर हजारों मील दूर से उसे देखने की लीक से जकड़े रहना चाहते हैं। बीबीसी का जिस दौर में नाम था वह जमाना कोई और था। तब संचार माध्यमों का इस तरह से विकास नहीं हुआ था। अखबार सिर्फ राजधानियों में छपते थे। समाचार चैनल के नाम पर दूरदर्शन था और रेडियो का मतलब ऑल इंडिया रेडियो। रेडियो सेट बड़ी चीज होती थी। टीवी तो जिसके घर में हो उसे आसपास के गांव के लोग भी जानते थे। छतों पर एंटीना का मतलब रईस होना होता था। इसपर भी तस्वीर आती थी तो आवाज नहीं, आवाज साफ आती थी तो तस्वीर धुंधली। इसीलिए शाम साढ़े सात बजे चौपाल पर रेडियो की आवाज गूंजने लगती थी – ये बीबीसी लंदन है। लेकिन अब ऐसा नहीं है। देखते ही देखते चीजें बदल गई हैं। अब तो बीबीसी हिंदी सर्विस के लिए पहचान का संकट है। लोग अभी की खबर अभी चाहते हैं। वो भी अपनी तरह की जुबान में, अपनी बात कहती हुई ख़बरें। दिल को छूती हुई। एक खतरनाक किस्म की तटस्थता अब नहीं चलेगी। अब पत्रकारिता में अलग किस्म की लड़ाई है। इस लड़ाई में हिस्सेदार बनने के लिए बीबीसी को अपनी चाल भी बदलनी होगी और चलन भी। वर्ना निर्जन द्वीप पर बैठकर करदाताओं से उगाही के पैसे से एक स्वान्त:सुखाय किस्म की पत्रकारिता तो चाहे जब तक की जा सकती है। लेकिन सुनेगा कोई नहीं।

Friday, August 31, 2007

पहचान खोते शहर

पिछले दिनों गोवा में था। दो साल में दूसरी बार, लेकिन इस बार जाकर झटका लगा। कोंकण के इस सुदूर समुद्री किनारे से ज्व ख़बरें दिल्ली पहुंच रही थीं वे सही थीं। बाजार की आंच अब वहां भी पहुंचने लगी थीं। अब वहां भी स्थानीय वास्तुशिल्प पर महानगरीय कायाकल्प का जादू छा रहा था। बड़े-बड़े शॉपिंग सेंटर, मॉल और आसमान में सीना ताने मल्टीप्लेक्स। पणजी में दो ही मशहूर रेस्त्रा हैं। शेरे पंजाब और दिल्ली दरबार। नाम भी गोवा से जुड़ा नहीं। कुछ यहां की खास के मेरे आग्रह पर बैरा झेंप जाता है। मेनू कार्ड पर प्रॉन से आगे कुछ नहीं। दाल मखनी, शाही पनीर, राजमा चावल या कढ़ी ही खानी हो तो काहे का गोवा और काहे की दिल्ली। बड़ी मुश्किल से एक पुरानी बस्ती के भीतर धंसे एक ढाबे में नारियल के झोल में पकी हुई समुद्री किंगफिश खाने को मिली तो लगा कि बहुराष्ट्रीय ढाबों की विशाल श्रृंखलाओं के आगे हमारी लाजवाब पाक कलाएं कैसे धराशायी हो रही है।

समुद्र के किनारे नारियल के झूमते पेड़ों का संगीत मिट रहा है। होटल और रिसॉर्ट बनाने के लिए एक बड़े हिस्से को उजाड़ दिया गया है। कंडोलिम जैसे बेइंतहा खूबसूरत समुद्री किनारे के कच्चेपन का आकर्षण खोता जा रहा है। अब समुद्र से बातें करने के लिए उसके किनारे पैदल चलकर जाने की जरूरत नहीं है। होटल की खिड़कियों से ही इसका आनंद लिया जा सकता है, लेकिन कमरे में समुद्र की लहरें पैरों के नीचे की रेत को बहाकर ले जाने का रोमांच कहां पैदा करती हैं। अब तो ऐसा लगता है कि दिल्ली और गोवा में धीरे-धीरे बस समुद्र, लाल किला या इंडिया गेटे के होने और न होने का अंतर रह जाएगा।

भूमंडलीकरण के दौर में बाजार सबसे बड़ा देवता है और उसकी महिमा पर सवाल खड़े करने वाले अराजक। इस नई भक्ति का विस्तार शहरों की पहचान को मटियामेट कर रहा है। हर जगह उसी तरह के मॉल, खाद्य श्रृंखलाएं और उसी हिसाब से बदलता परिवेश। गोवा ही क्यों दिल्ली से चार कदम के फासले पर जयपुर ही पहले वाला जयपुर कहां रहा। इस नए जयपुर में गुलाबी शहर की खोज करनी पड़ती है। जयपुर के लोग अब यह नहीं कहते कि जल महल, नाहरगढ़ का किला, आमेर पैलेस या केसरगढ़ का किला देखा या नहीं। अब कहते हैं कि गौरव टावर, सिटी पल्स या गणपति प्लाजा जरूर देखिए। अद्भुत है। अब उन्हें कौन कहे कि जो जयपुर हमारी कल्पनाओं में बसा है उसमें इन कंक्रीट और कोलतार के सघन जंगलों का उग आना एक सदमा है।

हरिद्वार, शिमला, देहरादून और नैनीताल जैसी पहाड़ी बस्तियां भी अब कितनी पहाड़ी रहीं। कोच्ची, पांडिचेरी, कोवलम इडुक्की, त्रिचूर और पालघाट में भी अब बदलाव की यह बयार बह रही है। इस बयार में वैश्विक सेठों के नए-नए उपनिवेश बन रहे हैं। यह नया चलन हर दस्तूर को मुनाफे की नजर से देखता है। सभ्यता को भी, संस्कृति को भी, भाषा को भी, संस्कारों को भी और सरोकारों को भी। इस आंधी में उन बस्तियों की जीवंतता गुम हो रही है जो कल तक मध्यवर्ग को भी अपनी तरफ खींचते थे। थोड़ी-बहुत जो कशिश बची हुई है वो भी जल्दी ही अतीत हो जाएगी। धीरे-धीरे वे लोग भी हाशिए पर चले जाएंगे जिनकी पीढ़ियों ने अवचेतन में ही सह-अस्तित्व की व्यावहारिक व्याख्याएं दीं। ठीक वैसे ही जैसे कोलियों को मुंबई अब एक पराया शहर लगता है।

सवाल है कि हम अपने आसपास की दुनिया को विकास की कैसी कूंची से रंगना चाहते हैं। क्या उनकी मौलिक खूबसूरती से छेड़छाड़ किए बगैर वाकई उनकी तस्वीर नहीं बदली जा सकती? या फिर एक खास तबके के लोग इस समूची जिंदादिली को अपने नफे के हिसाब से ढालने के लिए एक विकास का एक तिलिस्म बुन रहे हैं। जरा कोई बताए कि न्यूयार्क, शंघाई, शिकागो और टोकियो में आज क्या फर्क है सिवाए नाम और दूरी के। तरक्की फ्रांस ने भी कम नहीं की है लेकिन पेरिस को आप शिकागो नहीं कह सकते। उस शहर के कुछ ठेठ देशज संस्कार हैं। वेनिस में अभी भी वैसे ही नावें चलती हैं। पर्यटकों के लिए स्वर्ग है वेनिस लेकिन सुविधाओं के लिहाज से नहीं अपनी चुंबकीय खासियतों की वजह से। ऐसी ही आंधी हंगरी में भी चल रही है लेकिन बुडापेस्ट को लॉज एंजेलिस या वाशिंगटन बना देने का सपना वहां नहीं दिखाया जाता।

हमारे यहां अगर आज सैकड़ों किलोमीटर का फासला तय करके भी अब सिर्फ पता बदलता है एहसास नहीं तो गलती कहां है। बार-बार क्यों बताया जाता है कि मुंबई को शंघाई बनाया जा रहा है और दिल्ली को सिंगापुर। दिल्ली दिल्ली और मुंबई मुंबई बनकर क्यों नहीं रह सकती। हमारी वो कौन सी ग्रंथियां हैं जो हमें हमारी जड़ों से उखाड़कर अपनी ही ज़मीन पर परदेसी बन जाने की उत्तेजना पैदा करती है। एक सांध्य दैनिक में छपी ख़बर पर नज़र जाती है चांदनी चौक के जिस फुटपाथी चाट वाले के हुनर जमाना दीवाना था उसने आत्महत्या कर ली। एक अदालती आदेश के बाद वह फुटपाथ से सड़क पर आ गया था।

Sunday, August 19, 2007

“पिपरमेंटी कमिटमेंट” का मतलब?

(15 जुलाई, रविवार को प्रकाशित सुधीश पचौरी के आलेख पर असहमति पत्र)

क्या आप हिंदी के विकास में गिरिजा व्यास, नारायण कुमार, प्रेमचंद शर्मा, जनार्दन द्विवेदी, देवेंद्र द्विवेदी, सत्यव्रत चतुर्वेदी या अनिल शर्मा जोशी के योगदान को जानते हैं? नहीं जानते तो जान लीजिए, ये राष्ट्रभाषा के विकास के नए योद्धा हैं। यही वजह रही होगी कि आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन में पहले सत्र की अध्यक्षता कराने के लिए गिरिजा व्यास और दूसरे सत्र की अध्यक्षता कराने के लिए नारायण कुमार से बड़ा कोई विद्वान नहीं मिला। ऐसे तमाम विद्वानों ने इस सम्मेलन में शिरकत किया। हिंदी के कई दिग्गजों को इसपर कई तरीके से ऐतराज था इसलिए उन्होंने न्यूयॉर्क न जाने का फैसला किया। सबने अपनी-अपनी वजह भी बताई, लेकिन समालोचक सुधीश पचौरी के मुताबिक ऐसे लोगों ने न्यूयॉर्क न जाकर और इसकी वजह को सार्वजनिक करके अपना बेड़ा गर्क कर लिया है। यहां तक भी ठीक था लेकिन यह कहने के लिए उन्होंने जो भूमिका तैयार की वह विचलित करने वाली है। उन्होंने लिखा है कि “बुढ़ापे का प्यार और बुढ़ापे की क्रांतिकारिता बड़ा दर्दीला दुर्गत कराने वाला आइटम बन जाती है। …सीनियर सिटिजनों की दुनिया दर्दीली ही होती है। ...हम कहते हैं कि क्रांतिकारिता तो पार्किन्सनिया छाप होती है। हाथ-पैर कांपते रहते हैं गर्दन में विचार फंसे रह जाते हैं मगर कमिटमेंट नामक पिपरमिंटी गोली आदमी को लाल भभूका बनाए रखती है। बच्चे हंसने लगते हैं।” सुधीश जी आपको नहीं लगता कि आपकी इस पोस्टमॉर्डन थ्योरी ने आधी दुनिया के राजनैतिक और सामाजिक विकास को पूरी तरह से खारिज कर दिया है? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह थ्योरी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रतिरोध के बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकार और लेखकीय जवाबदेहियों की कुर्बानी की मांग करती है? लेकिन पहले साहित्य की बात। आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन में जो लोग नहीं गए और जिन्होंने प्रतिरोध भी दर्ज कराया उनमें से कई ऐसे हैं जिन्हें काटकर मौजूदा हिंदी का पूरा चेहरा ही नहीं बनता। इनमें ज्यादातर सीनियर सिटिजन ही हैं। नामवर सिंह, राजेंद्र यादव, महाश्वेता देवी, अशोक वाजपेयी, कुंवरपाल सिंह, केदारनाथ सिंह, पंकज बिष्ट, मंगलेश डबराल...। लेकिन आपके मुताबिक इन लोगों को “कोई आज पूछ नहीं रहा है।” इन्होंने यह बताकर “अपना बुढ़ापा खराब कर लिया है” कि उनका ऐतराज किन बिंदुओं पर है। ऐसे तमाम लोग “कमिटमेंटी पिपरमेंटी” साहित्यकार है और जो लोग तिकड़म भिड़ाकर न्यूयॉर्क घूम आए वे हिंदी के कोलंबस जो इस भाषा के नए द्वीपों की तलाश की चिंता में घुले जा रहे हैं। प्रतिबद्धता का इससे भौंडा मजाक नहीं उड़ाया जा सकता। कम से कम सुधीश पचौरी में तो इस गुस्ताखी की नैतिकता भी नहीं है। मुझे नहीं मालूम हिंदी को उन्होंने याद रखने लायक ऐसा क्या दे दिया है जिसके आगे उन्हें राजेंद्र यादव, नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, केदारनाथ सिंह और महाश्वेता देवी की साठोत्तरी उम्र की सोच और सृजन दोनों के लिहाज से पिपरमेंटी मान लिया है। आज महाश्वेता, राजेंद्र, नामवर या पंकज जैसे “क्रांतिकारी हवाबाज” अपनी तमाम जवानी के बावजूद कम से कम सुधीश पचौरी से ज्यादा प्रासंगिक और ज़रूरी हैं। आप सम्मेलन ही करते रह गए और कैंब्रिज में हो रही हिंदी की पढ़ाई भी बंद हो गई। रही बात कमिटमेंट की तो यहां सुधीश जी वाकई अपनी जगह ठीक हैं। “इस परम पोस्टमॉर्डन जमाने” में वाकई कमिटमेंट जैसा कोई शब्द एक्जिस्ट नहीं करता। अमेरिका से बड़ा इसका उदाहरण क्या होगा जहां से आप पोस्टमॉर्डनिज्म उधार लेकर हिंदुस्तान आए हैं। इस सिद्धांत में शांति एक आडंबर है और युद्ध एक अनिवार्य उत्तेजना। इसीलिए इराक, अफगानिस्तान, फिलिस्तीन और वियतनाम जैसे नाम एक परिघटना बन जाते हैं। यही वजह है कि जब आपने कहा कि कमिटमेंट पिपरमेंट का हवाई असर होता है तो अटपटा नहीं लगा। जब आपने आत्ममुग्ध भाव से खुद ही घोषणा कर दी है कि आप पोस्टमॉर्डनिस्ट लेखक हैं तो क्या कहें। इसे विडंबना कहें या इस देश की महानता कि जहां अभी ठीक से मॉडर्निज्म भी नहीं आया वहां एक लेखक पोस्टमॉर्डनिज्म के नाम पर खुद को धड़ल्ले से बेच लेता है। जिस देश में सैकड़ों किसान हर साल भूख से दम तोड़ देते हों, आधा देश मजहब के नाम पर भय के साये में जीता हो, औद्योगिक विकास के नाम पर किसानों-मजदूरों को उजाड़ा जा रहा हो और जहां रोज नाबालिग बच्चियों के साथ बलात्कारकी खबरें आती हों उस देश में पोस्टमॉडर्निज्म की सार्थकता आप ही सिद्ध कर सकते हैं। नॉम चॉम्स्की बहुत पहले कह चुके हैं कि “पोस्टमॉडर्निज्म एक घोटाला है जिसका पूरा तानाबाना कुछ बुद्धिजीवियों ने अपने आपको बेरोजगार होने से बचाए रखने के लिए रचा है।” किसानों, मजदूरों, महिलाओं, सांप्रदायिकता और आर्थिक-सामाजिक विद्रुपताओं को साहित्य की मुख्य धारा में शामिल करने वाले लोग आज पिपरमेंटी हैं जिनपर “आज के बच्चे भी हंसते हैं।” पचौरी जी जैसे लोगों का तो पेट फूल जाता होगा। सुधीश पचौरी जी की मानें तो सत्तर-अस्सी की उम्र नए बोझ उठाने की नहीं खाट पर आराम करने की होती है। तब तो नेल्सन मंडेला, हो-ची-मिन्ह, माओ-त्से-तुंग से लेकर यासिर अराफात और फिदेल कास्त्रो तक ने सत्तर पार की उम्र में जो किया वह “पार्किन्सनिया छाप क्रांतिकारिता” थी। पचौरी जी पोस्टमॉडर्निज्म के जोश में भूल रहे हैं कि गांधी ने अठत्तर की उम्र में इस देश को आजादी दिलाई थी। अराफात की कांपती हुई हड्डियां भी कम से कम फिलीस्तीन को जोड़े हुए थीं, इक्यासी के कास्त्रो बिस्तर पर पड़े हुए भी अमेरिकी अधिनायकवाद के खिलाफ सबसे मुखर आवाज हैं और मंडेला ने जब सत्ताइस साल की जेल काटकर रंगभेद की नीति पर निर्णायक चोट की तो वे सत्तर के होने वाले थे। पचौरी जी यह सब बुढ़ापे की “क्रांतिकारी हवाबाजी” नहीं थी। सत्तर पार के लोग इतिहास की धारा बदल सकते हैं और साहित्य में उनकी उम्र अवरोधक बन जाती है यह बात कुछ हजम नहीं होती। टॉल्सटॉय ने वार एंड पीस कितनी उम्र में लिखी थी? वक्त की धाराएं अनर्गल, अराजक और दंभी बौद्धिक प्रलाप से नहीं एक ठोस चिंतन से तय होती हैं। साहित्य में भी यह बात उतनी ही खरी है वर्ना आज विश्व हिंदी सम्मेलन को अपने कमिटमेंट के सामने ठेंगे पर रखने वाले लेखक हाशिए पर होते और कमिटमेंट का मजाक उड़ाने वाले पोस्टमॉर्डन लेखकों को हिंदी का पाठक सिर-माथे पर बैठा लेता। प्रसंगवश यहां यह बताना भी गैरवाजिब नहीं होगा कि विदेश मंत्रालय के प्रतापी हिंदी उद्धारकों ने विश्व हिंदी सम्मेलन के आमंत्रितों की जो सूची बनाई थी उसमें राजेंद्र माथुर और कमलेश्वर का नाम भी दर्ज था। यह तो उन्हें उनके घरों पर फोन करने के बाद पता चला कि राजेंद्र माथुर डेढ़ दशक पहले गुजर गए और कमलेश्वर को दिवंगत हुए भी अरसा हुआ। पचौरी जी को भी ऐसे ही किसी गंगू, मंगू या पंगू ने आमंत्रित किया होगा। आप इसपर सवाल उठाने का साहस कभी नहीं जुटा पाएंगे कि ऐसी भयंकर गलती आयोजन समिति में पांच दर्जन प्रकांड विद्वानों के रहते कैसे हो गई। इसके बावजूद आप अमेरिका जाते हैं तो जाएं। यह तो मानने की बात है। आप चाहें तो इसे आमंत्रण मानें और चाहें तो अपमान।

Wednesday, August 15, 2007

रानी रूठें तो रूठा करें

(15 जुलाई, रविवार को पेज नंबर आठ पर छपा सुधीश पचौरी का मूल आलेख)

बुढ़ापे का प्यार और बुढ़ापे की क्रांतिकारिता बड़ा दर्दीला दुर्गत कराने वाला आइटम बन जाती है। हाथ में जुंबिश नहीं रहती और आंखों में दम नहीं रहता और लालसा ललचाती है कि बेटा एक्टिव हो जा ! अब तक प्रीपेड एक्टिव रहे अब आगे भी होता रह। फ्री रीचार्ज करता रह ! लेकिन सत्तर-अस्सी साल की उम्र बड़ा कष्ट देती है ये नए बोझ उठते नहीं। तरह-तरह के कष्टदेह से बालने लगते हैं। सीनियर सिटिजनों की दुनिया दर्दीली ही होती है। बुजुर्गों का कहना रहा है कि बुढ़ापे का इश्क गठिया से बदतर है और हम कहते हैं कि क्रांतिकारिता को पर्किन्सिनिया छाप होती है। हाथ-पैर कांपते रहते हैं गर्दन में विचार फंसे रह जाते हैं मगर कमिटमेंट नामक पिपिरमेंटी गोली आदमी को लाल भभूका बनाए रखती है। बच्चे हंसने लगते हैं।

पुरखे ऐसे में वानप्रस्थ की वकालत करते रहे हैं। उसमें बहुत बुजुर्गवार समाज के बीच नहीं रहते। उन्हें कोई नहीं पूछता और आप भी किसी को नहीं पूछते। पारी खेलकर छुट्टी मनाते रहते हैं। यह व्यवस्था बुरी नहीं। मगर कोई माने तब न ! और कमबख्त ये जमाना जितना विकसित होता जाता है, उतना ही असाध्य होता जाता है। एकदम कंट्रोल से बाहर। बच्चे तक नहीं पूछते, लेकिन साहित्य की दुनिया में शासन करने की मचलती लालसा जाती नहीं। बड़ी आफत होती है। अगर आप कमिटमेंटी पिपिरमेंटी साहित्यकार हैं। आपको लगता रहा है कि आप साहित्यकारों के विधाता लीडर आदि सबकुछ हैं। आप लाइन देते रहे हैं मूरख लाइन लेते रहे हैं और अब भी देंगे तो लोग लेंगे। ये गलतफहमी मरवा के छोड़ती है। ये पुरानी लाइन भी अब नहीं चलती। चलती तो हिंदी सम्मेलन में जाने वालों में से कुछ और विद्रोह की लाइन में लग जाते। कुछ पुराने नागपुरिया विश्व हिंदी सम्मेलन वाले सीन बन जाते ! इतने बड़े-बड़े मान्य लेखकों ने जब न जाने का मन बनाया, तो उनकी देखादेखी दस-पांच तो और लाइन में लग जाते। इस परम घटिया परम पोस्टमॉर्डन जमाने को क्या चाहिए ? सब आउट ऑफ कंट्रोल चले गए। जिन्होंने मना किया वे रह गए, नागपुर के विश्व हिंदी सम्मेलन में, जो क्रांति-भावना दिख रही थी, उसकी परछाईं भी नहीं दिखी। सबके सब अवसरवादी हो गए। सब निमंत्रित लाइन लगाकर चल दिए। फुर्र हो लिए। जिन लोगों ने न जाने का मन बनाया, वे चुप रहते तो अधिक गरिमा रहती। वे चुप नहीं रहे। मीडिया के पब्लिक डोमेन में आ गए। अखबार में खबर कर दी कि नहीं जा रहे हैं और वजाहत भी कर दी कि ‘इस वजह से’ नहीं जा रहे हैं। कइयों को इस आयोजन में हिंदुत्व की गंध आई। जाने वालों के समक्ष उन्होंने एक राजनीतिक लाइन रख दी और पूछा कि तय करो किस ओर हो तुम ? पब्लिक डोमेन में आने के बाद ऐसा ही होता है। पब्लिक जवाबदेह हो उठती है। हम भी स्थिति स्पष्ट कर कर रहे हैं।

हिंदुत्व का आरोप जरा तथ्य का मामला है। इस सरकार के हजार दोष कहे जा सकते हैं कम से कम इसे हिंदूवादी तो नहीं कहा जा सकता। जो सरकार हिंदुत्ववादी शक्तियों के खिलाफ खुला एजेंडा लेकर आई हो, जिसे वामपंथी समर्थन दे रहे हों, उसकी कमेटियों को हिंदुत्ववादी हड़प लें, ये तो हो नहीं सकता। तिसपर एक सज्जन तो कमेटियों में ही थे। वे पहले क्या कर रहे थे ? इस तरह विचारधारा भी आई तो विघ्न संतोषी बनकर। अपना सोच यही है। बताइए इस मामूली से कालमकार को जैसे-तैसे विश्व हिंदी सम्मेलन का निमंत्रण पत्र मिला। विदेश मंत्रालय से फोन आया, तो रूठा न गया। पापी पोस्टमॉडर्निस्ट इस लेखक से यह अद्भुत पाप हो रहा है। होना ही चाहिए।

एक तो अमेरिका पोस्टमॉर्डनिस्ट मुल्क। उधर यह बंदा भी उसकी पोस्टमॉडर्न से अपनी जिंदगी मे रूखी-सूखी जिंदगी का बंदोबस्त करने वाला ठहरा। क्या करे ? सब कमेटियों में सब जगह बैठे रहे हो। दस-बीस साल साहित्य को अपनी ऐशगाह बनाया है अब अगर पूछ कम हो गई है तो क्यों चीख चिल्लाकर अपना बुढ़ापा खराब करते हो ? क्रांतिकारी हवाबाजी करते हो ? जो नए जा रहे हैं उन्हें जाने दो। जलो मत ! यह टिप्पणी इस तरह से न होती अगर इस मुद्दे को पब्लिक डोमेन में न उछाला गया होता। हमसे भी एक पत्रकार मित्र ने पूछा आप जा रहे हैं ? हमने कहा न्योता है तो जरूर जाएंगे ? उन्होंने कहा कि कई लोग नहीं जा रहे ? हमने कहा कि रानी रूठेंगी, तो अपना सुहाग लेंगी ! और क्या ?