Wednesday, August 15, 2007

रानी रूठें तो रूठा करें

(15 जुलाई, रविवार को पेज नंबर आठ पर छपा सुधीश पचौरी का मूल आलेख)

बुढ़ापे का प्यार और बुढ़ापे की क्रांतिकारिता बड़ा दर्दीला दुर्गत कराने वाला आइटम बन जाती है। हाथ में जुंबिश नहीं रहती और आंखों में दम नहीं रहता और लालसा ललचाती है कि बेटा एक्टिव हो जा ! अब तक प्रीपेड एक्टिव रहे अब आगे भी होता रह। फ्री रीचार्ज करता रह ! लेकिन सत्तर-अस्सी साल की उम्र बड़ा कष्ट देती है ये नए बोझ उठते नहीं। तरह-तरह के कष्टदेह से बालने लगते हैं। सीनियर सिटिजनों की दुनिया दर्दीली ही होती है। बुजुर्गों का कहना रहा है कि बुढ़ापे का इश्क गठिया से बदतर है और हम कहते हैं कि क्रांतिकारिता को पर्किन्सिनिया छाप होती है। हाथ-पैर कांपते रहते हैं गर्दन में विचार फंसे रह जाते हैं मगर कमिटमेंट नामक पिपिरमेंटी गोली आदमी को लाल भभूका बनाए रखती है। बच्चे हंसने लगते हैं।

पुरखे ऐसे में वानप्रस्थ की वकालत करते रहे हैं। उसमें बहुत बुजुर्गवार समाज के बीच नहीं रहते। उन्हें कोई नहीं पूछता और आप भी किसी को नहीं पूछते। पारी खेलकर छुट्टी मनाते रहते हैं। यह व्यवस्था बुरी नहीं। मगर कोई माने तब न ! और कमबख्त ये जमाना जितना विकसित होता जाता है, उतना ही असाध्य होता जाता है। एकदम कंट्रोल से बाहर। बच्चे तक नहीं पूछते, लेकिन साहित्य की दुनिया में शासन करने की मचलती लालसा जाती नहीं। बड़ी आफत होती है। अगर आप कमिटमेंटी पिपिरमेंटी साहित्यकार हैं। आपको लगता रहा है कि आप साहित्यकारों के विधाता लीडर आदि सबकुछ हैं। आप लाइन देते रहे हैं मूरख लाइन लेते रहे हैं और अब भी देंगे तो लोग लेंगे। ये गलतफहमी मरवा के छोड़ती है। ये पुरानी लाइन भी अब नहीं चलती। चलती तो हिंदी सम्मेलन में जाने वालों में से कुछ और विद्रोह की लाइन में लग जाते। कुछ पुराने नागपुरिया विश्व हिंदी सम्मेलन वाले सीन बन जाते ! इतने बड़े-बड़े मान्य लेखकों ने जब न जाने का मन बनाया, तो उनकी देखादेखी दस-पांच तो और लाइन में लग जाते। इस परम घटिया परम पोस्टमॉर्डन जमाने को क्या चाहिए ? सब आउट ऑफ कंट्रोल चले गए। जिन्होंने मना किया वे रह गए, नागपुर के विश्व हिंदी सम्मेलन में, जो क्रांति-भावना दिख रही थी, उसकी परछाईं भी नहीं दिखी। सबके सब अवसरवादी हो गए। सब निमंत्रित लाइन लगाकर चल दिए। फुर्र हो लिए। जिन लोगों ने न जाने का मन बनाया, वे चुप रहते तो अधिक गरिमा रहती। वे चुप नहीं रहे। मीडिया के पब्लिक डोमेन में आ गए। अखबार में खबर कर दी कि नहीं जा रहे हैं और वजाहत भी कर दी कि ‘इस वजह से’ नहीं जा रहे हैं। कइयों को इस आयोजन में हिंदुत्व की गंध आई। जाने वालों के समक्ष उन्होंने एक राजनीतिक लाइन रख दी और पूछा कि तय करो किस ओर हो तुम ? पब्लिक डोमेन में आने के बाद ऐसा ही होता है। पब्लिक जवाबदेह हो उठती है। हम भी स्थिति स्पष्ट कर कर रहे हैं।

हिंदुत्व का आरोप जरा तथ्य का मामला है। इस सरकार के हजार दोष कहे जा सकते हैं कम से कम इसे हिंदूवादी तो नहीं कहा जा सकता। जो सरकार हिंदुत्ववादी शक्तियों के खिलाफ खुला एजेंडा लेकर आई हो, जिसे वामपंथी समर्थन दे रहे हों, उसकी कमेटियों को हिंदुत्ववादी हड़प लें, ये तो हो नहीं सकता। तिसपर एक सज्जन तो कमेटियों में ही थे। वे पहले क्या कर रहे थे ? इस तरह विचारधारा भी आई तो विघ्न संतोषी बनकर। अपना सोच यही है। बताइए इस मामूली से कालमकार को जैसे-तैसे विश्व हिंदी सम्मेलन का निमंत्रण पत्र मिला। विदेश मंत्रालय से फोन आया, तो रूठा न गया। पापी पोस्टमॉडर्निस्ट इस लेखक से यह अद्भुत पाप हो रहा है। होना ही चाहिए।

एक तो अमेरिका पोस्टमॉर्डनिस्ट मुल्क। उधर यह बंदा भी उसकी पोस्टमॉडर्न से अपनी जिंदगी मे रूखी-सूखी जिंदगी का बंदोबस्त करने वाला ठहरा। क्या करे ? सब कमेटियों में सब जगह बैठे रहे हो। दस-बीस साल साहित्य को अपनी ऐशगाह बनाया है अब अगर पूछ कम हो गई है तो क्यों चीख चिल्लाकर अपना बुढ़ापा खराब करते हो ? क्रांतिकारी हवाबाजी करते हो ? जो नए जा रहे हैं उन्हें जाने दो। जलो मत ! यह टिप्पणी इस तरह से न होती अगर इस मुद्दे को पब्लिक डोमेन में न उछाला गया होता। हमसे भी एक पत्रकार मित्र ने पूछा आप जा रहे हैं ? हमने कहा न्योता है तो जरूर जाएंगे ? उन्होंने कहा कि कई लोग नहीं जा रहे ? हमने कहा कि रानी रूठेंगी, तो अपना सुहाग लेंगी ! और क्या ?

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